अहा! जिंदगी! के सितंबर 2018 के अंक में मेरा एक आलेख ‘बाट जोहता ब्रज’ प्रकाशित हुआ। कृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर प्रकाशित इस आलेख में वृंदावन के सात प्रमुख विग्रहों और उनके वृंदावन से बाहर जाने-आने का किस्सा लिखा।
वृंदावन के चार ठाकुर जो एक बार गए तो फिर वापस नहीं लौटे
अनिरुद्ध शर्मा
देश के अनेक नगर अपने यहां किसी मंदिर विशेष, तीर्थ, पुरी या धाम के नाम पर ही जाने जाते हैं जैसे द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम, अयोध्या, कांचीपुरम, मदुरई, काशी, प्रयाग, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन वगैरह। इनमें से कई शहर अनेक मंदिर होने पर भी मंदिर नगरी नहीं कहलाते। पर मंदिरों की नगरी के रूप में यदि आपको देश का कोई नगर याद आएगा तो वह शायद एक मात्र वृंदावन ही होगा, मथुरा भी नहीं। हालांकि अब वृंदावन का अपनी सीमाओं से बाहर काफी विस्तार हो गया है लेकिन इसकी पंचकोसी परिक्रमा के अंदर ऐसा कोई घर-आंगन नहीं होगा, जिसमें ठाकुर जी (श्रीकृष्ण) न विराज रहे हों। जिसके बारे में भक्त कवयित्री मीराबाई ने भी कहा है-‘आली रे मोहे लागे वृंदावन नीको। घर-घर तुलसी ठाकुर पूजा, दर्शन गोविंद जी को।’ मतलब अरी सखी! वृंदावन मुझे बहुत अच्छा लगता है यहां घर-घर तुलसी का पौधा है, ठाकुर जी (भगवान कृष्ण) विराजमान हैं, उनकी पूजा और दर्शन है यानी हर घर मंदिर है। एक अजीब संयोग यह है कि मीराबाई ने अपने इस पद में वृंदावन के साथ कृष्ण का जो नाम (गोविंद जी) लिया है। उस नाम का भव्य मंदिर तो यहां है पर उसमें गोविंद जी का मूल विग्रह नहीं है। गोविंद देव मंदिर अकेला ऐसा मंदिर नहीं है बल्कि तीन और ऐसे ही मंदिर (गोपीनाथ, मदन मोहन और युगल किशोर) हैं जिनमें मूल अर्चा-विग्रह विराजमान नहीं है। दरअसल, यहां के भव्य मंदिरों में वे विराजमान तो हुए पर आक्रमणकारियों के हमले से बचाने के लिए उन्हें सुरक्षित स्थान ले जाया गया पर वे कभी वापस लौटे ही नहीं।
यूं तो ब्रज अनेक बार उजड़ा और बसा। कहा जाता है कि कृष्ण के चले जाने के बाद पहली बार उनके प्रपौत्र (कृष्ण के बेटे प्रद्युम्न, उनके बेटे अनिरुद्ध, उनके बेटे वज्रनाभ) ने ब्रज को बसाने की कोशिश की और कृष्ण के अनेक विग्रह बनवाकर स्थापित किए। माना जाता है कि वज्रनाभ ने ब्रज में सात कृष्ण और बलराम विग्रह की स्थापना की। इनमें से तीन कृष्ण विग्रहों-गोविंद, गोपीनाथ और मदन मोहन की प्रतिष्ठापना वृंदावन में की गई थी। जो समय की परतों के नीचे दब गए और ओझल हो गए। सदियोंं तक वृंदावन सघन वन के रूप में रहा। अब से कोई पांच सदी पहले जब वैष्णव संतों (चैतन्य व उनके अनुयायी षडगोस्वामियों, स्वामी हरिदास, हित हरिवंश, हरिराम व्यास आदि) ने ब्रज की, विशेषकर वृंदावन की पहचान की तो यहां उन्हें अलग-अलग स्थानों पर कृष्ण के अनेक विग्रह भी प्राप्त हुए और तभी संयोग से अकबर और जहांगीर के शासनकाल में माहौल ऐसा बना कि मंदिरों के निर्माण होने लगे, उनमें विग्रहों की स्थापना करके पूजा-अर्चना शुरू हो गई। लेकिन फिर एक विनाशकारी दौर आया और हमलों से बचाने के लिए वृंदावन में तब विराजमान सात प्रमुख विग्रहों को उनके भक्तगण यहां से बाहर ले गए। जिनमें से बांके बिहारी, राधा बल्लभ और राधा रमण तो वापस आ गए और आज तक विराजमान हैं, वृंदावन में ही दर्शन दे रहे हैं लेकिन गोविंद जी, गोपीनाथ जी जयपुर में, मदन मोहन जी करौली में और जुगल किशोर पन्ना में विराजमान हैं।
ब्रज में एक संत हुए थे भगवत रसिक देव। इन्होंने अपने एक पद में वृंदावन के इन्हीं सातों स्वयं प्रकट अर्चा विग्रहों (ऐसे पूजित विग्रह जिन्हें किसी शिल्पी ने नहीं गढ़ा) का एक साथ स्मरण किया है-
प्रथम दरस गोविंद रूप के प्राणन प्यारे।
द्वितीय मोहन मदन सनातन सचि उर धारे।
तीजे गोपीनाथ मधु हंसि कंठ लगायो।
चौथे राधारमण भट गोपाल लड़ायो।
पांचें हरिवंश किए वश बल्लभराधा।
छठे जुगलकिशोर व्यास सुख दियौ अगाधा।
सातें हरिदास के कुंज बिहारी हैं यहां।
भगवत रसिक अनन्य वास निधिवन तहां।
इस एक ही पद में रसिक देव ने न केवल सातों विग्रह स्वरूपों बल्कि उनके प्रथम सेवक या प्राकट्यकर्ता (जिन्हें वे प्राप्त हुए) के नामों का भी उल्लेख कर दिया है।
गोविंद देव : ब्रज के चार देवों में एक
वज्रनाभ ने जिन आठ विग्रहों की स्थापना की उनमें से चार देव कहलाए, गोविंद देव (वंृदावन), केशव देव (मथुरा), हरिदेव (गोवर्धन) और बलदेव (दाऊजी)। वज्रनाम द्वारा वृंदावन में स्थापित तीनों की विलुप्त प्रतिमाओं का प्राकट्य चैतन्य अनुयायियों (गौड़िया संतों) ने किया। गोविंद जी की प्रतिमा रूप गोस्वामी को यहां के गोमा टीला नाम के स्थान पर सन् 1535 (विक्रम संवत 1592) में प्राप्त हुई थी। गोविंद जी गौड़िया या चैतन्य संप्रदाय के प्रमुख उपास्य विग्रह हैं। संप्रदाय की मान्यता के मुताबिक रूप गोस्वामी ने अपने सेव्य स्वरूप गोविंद देव के उस विग्रह को माघ शुक्ल पंचमी को एक झोंपड़ीनुमा कुटिया (मंदिर) में प्रतिष्ठित किया था। रूप गोस्वामी के देहावसान के बाद रघुनाथ भट्ट गोस्वामी गोविंद जी की पूजा करते थे। अकबर का सेनापति मानसिंह रघुुनाथ भट्ट गोस्वामी का शिष्य था और उसकी ब्रज के प्रति बहुत श्रद्धा थी। सन् 1576 में मेवाड़ के युद्ध में जाने से पहले मानसिंह ने संकल्प लिया कि यदि वह विजयी हुआ तो वृंदावन में गोविंद देव जी का भव्य मंदिर बनवाएगा। हल्दी घाटी में मुगलों की विजय हुई। तब अकबार की अनुमति से मानसिंह ने वृंदावन में मंदिर के निर्माण की शुरूआत की। मंदिर के लिए लाल पत्थर तांतपुर से लाया गया जहां से फतेहपुर सीकरी के निर्माण के लिए पत्थर लाए गए थे। अकबर ने मंदिर निर्माण के लिए लाए जा रहे पत्थरों का मूल्य भी माफ कर दिया था। 14 वर्षों में यहां भव्य मंदिर बनकर तैयार हुआ। उत्तर भारत का यह सर्वोत्कृष्ट मंदिर है। मुगल कालीन मंदिरों में वास्तुकला का यह सर्वश्रेष्ठ नमूना है। सन् 1590 से 1669 तक 79 वर्षों तक गोविंद जी यहां विराजमान रहे। औरंगजेब ने वृंदावन पर हमला करके मंदिरों को तुड़वाना शुरू किया, प्रतिमाओं को खंडित करने लगा। लेकिन इस ध्वस्तीकरण की सूचना एक-दो दिन पूर्व ही गोविंद जी के सेवायत गोस्वामियों को लग गई और वे उन्हें लेकर जयपुर की ओर निकल गए। तब से गोविंद जी जयपुर में ही विराजमान हैं। औरंगजेब के हमले में गोविंद देव मंदिर के अंदर दीवारों, खंबों पर बनी उकेरी गई सभी कलाकृतियों व मूर्तियों को नष्ट कर दिया, विशेषकर पत्थरों पर उभरी प्रतिमाओं के नाक व चेहरे तोड़ दिए गए। करीब 151 वर्षों बाद बंगाल के एक सेठ नंद कुमार बसु ने लाल पत्थर वाले गोविंद जी मंदिर के ठीक पीछे गोविंद घेरा में ही गोविंद जी का नया मंदिर बनवाया जिसमें गोविंद जी के प्रतिभू (मूल जैसी) विग्रह की स्थापना की गई। मूल मंदिर में भी सेवायतों ने ठाकुर जी के विग्रह की स्थापना कर रखी है लेकिन अपनी भव्यता के चलते यह पुरातत्व में रुचि रखने वाले और स्थापत्य व शिल्प प्रेमियों को तो आकर्षित करता है पर श्रद्धालू यहां कम ही नजर आते हैं। आज मंदिर परिसर में चमगादड़, कबूतर और बंदरों का आतंक है।
मदन मोहन : करौली के राजकीय देवालय में हैं विराजमान
मदन मोहन जी का विग्रह चैतन्य संप्रदाय के संत अद्वैत प्रभु को यमुना किनारे द्वादशादित्य टीले पर मिला जब वे ब्रज यात्रा पर आए थे। वे वापस जाने लगे तो उन्होंने मदन मोहन जी की प्रतिमा मथुरा के एक चतुर्वेदी परिवार को सौंप दी। उनसे यह प्रतिमा सनातन गोस्वामी को मिली जो उन्हें फिर से वृंदावन ले आए। कहते हैं कि तब मुल्तान के व्यापारी तब की राजधानी आगरा जाने के लिए यमुना मार्ग का इस्तेमाल करते थे। रामदास कपूर नाम के एक नमक व्यापारी की नाव द्वादशादित्य टीले के पास यमुना में फंस गई। उसने मनौती मांगी कि यदि वह जान माल सहित सुरक्षित आगरा पहुंच गया तो लौटकर मदन मोहन जी का मंदिर बनवाएगा। उसने लौटकर यहां मंदिर बनवाया और शिकर पर सोने का कलश लगवाया। बताते हैं कि मांट गांव के चोर उस कलश व मंदिर की तमाम संपत्ति को चुरा ले गए। बाद में उड़ीसा के राजा ने सन् 1627 (संवत 1684) में इसी स्थान पर कलिंग शैली का मंदिर बनवाया। लाल पत्थर से बने अष्टकोणीय स्तूप के शिखर पर कमलाकृति है। वंृदावन में आज भी यह सबसे ऊंचा मंदिर है। औरंगजेब के आक्रमण के दौरान मदन मोहन जी की प्रतिमा को भी सेवायत गोस्वामी जयपुर ही ले गए थे। लेकिन बाद में करौली के राजा गोपाल सिंह अपने बहनोई जयपुर नरेश से मांगकर मदन मोहन जी को अपने यहां ले आए। तब से करौली के राजकीय देवालय में मदन मोहन जी विराजमान हैं।
वंृंदावन के मूल मंदिर के पास ही नंद कुमार बसु ने मदन मोहन घेरा में सन् 1820 में मदन मोहन जी का भी नया मंदिर बनवाया और मदन मोहन जी का प्रतिभू विग्रह स्थापित किया। मूल मंदिर में भी सेवायतों ने ठाकुर जी की स्थापना कर रखी है। लेकिन मंदिर अधिकांश वीरान ही रहता है।
गोपीनाथ : जयपुर में दे रहे दर्शन
गोपीनाथ जी का विग्रह गौड़िया संत परमानंद भट्टाचार्य को वंृदावन में यमुना किनारे वंशीवट से प्राप्त हुई थी। जिसे उन्होंने अपने शिष्य मधु पंडित को सेवा-पूूजा के लिए सौंप दिया। मधु गोस्वामी ने वंशीवट और निधिवन के बीच उन्हें प्रतिष्ठित किया। गोपीनाथ जी के प्रथम मंदिर का निर्माण रायसेन नाम के एक राजपूत सरदार ने अकबर की अनुमति से सन् 1589 (संवत् 1646) में करवाया था। बाद में बीकानेर के राठौर वंश के कल्याण मल्ल के बेटे राम सिंह ने सन् 1632 (संवत् 1688) में गोपीनाथ जी मंदिर को और भव्यता दी। 37 साल बाद ही औरंगजेबी हमले में गोपीनाथ जी को भी उनके सेवायत जयपुर ले गए। जहां पुरानी बस्ती के मंदिर में गोपीनाथ जी आज भी विराजमान हैं।
अकबर के शासन के दौरान वृंदावन में पांच बड़े मंदिरों का निर्माण हुआ जिन्हें बाद में औरंगजेब ने ध्वस्त करा दिया, उनके अवशेष वृंदावन में आज भी हैं। उनमें गोविंद जी मदन मोहन के अलावा गोपीनाथ, जुगल किशोर और राधा बल्लभ मंदिर हैं। उनमें से गोपीनाथ मंदिर ही अपेक्षाकृत हमले में कम ध्वस्त हुआ था लेकिन आज सबसे जर्जर अवस्था में है। गोविंद, मदन मोहन के साथ ही सन् 1748 (संवत् 1805) में गोपीनाथ जी के प्रतिभू विग्रह की स्थापना की गई। नंद कुमार बसु ने गोविंद, मदन मोहन के साथ ही गोपीनाथ जी के लिए भी वृंदावन के गोपीनाथ घेरा में नया मंदिर सन् 1820 में बनवाया। यहां गोपीनाथ जी प्रतिभू विग्रह की स्थापना करवाई गई। बसु के बनवाए तीनों ही मंदिर संरचना व आकार की दृष्टि से एक जैसे हैं। एक दिलचस्प बात यह भी है कि वृंदावन के इन तीनों मंदिरों के निर्माण के बाद न केवल मुगल शासक ने तीर्थ कर खत्म कर दिया था बल्कि वृंदावन की पूरी जमीन का स्वामित्व इन तीनों मंदिरों में बांट दिया ताकि वहां रहने वाली आबादी इन मंदिरों को वार्षिक भूमि कर दे और इन मंदिरों के संचालन में कोई व्यवधान न पड़े। वृंदावनवासी हाल के वर्षों तक भी नगर पालिका परिषद के अलावा एक सालाना भूमिकर इन मंदिरों को अदा करते थे।
जुगल किशोर : पन्ना चले गए तो वापस नहीं लौटे
ब्रज में ‘हरि’ नामक तीन महान संतों को हरित्रयी के नाम से पुकारा जाता है। ये हरित्रयी संत हैं-स्वामी हरिदास, हित हरिवंश और हरि राम व्यास। हरिराम व्यास को सन् 1563 (संवत् 1620) की माघ शुक्ल एकादशी को किशोर वन नाम के स्थान से जुगल किशोर (युगल किशोर) की प्रतिमा प्राप्त हुई। उन्होंने किशोर वन में ही उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया। बाद में ओरछा के राजा मधुकर शाह ने व्यास घेरा में बुंदेला शैली का मंदिर बनवाया, जहां जुगल किशोर प्रतिष्ठित हुए। औरंगजेबी हमले के समय मंदिर के सेवायत जुगल किशोर जी को ओरछा के पास पन्ना (मध्य प्रदेश) ले गए। तब से जुगल किशोर जी वहीं विराजमान हैं। वंृदावन का पुराना जुगल किशोर मंदिर पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। हालांकि जुगल किशोर जी का एक और मंदिर वृंदावन में केशीघाट के पास है जिसे जहांगीर के शासनकाल में नौनकरण नाम के राजपूत सरदार ने सन् 1627 (संवत् 1684) में बनवाया था। इसकी हालत अपेक्षाकृत अच्छी है क्योंकि ब्रिटिश राज के दौरान जब मथुरा में एफएस ग्राउस कलेक्टर था तो उसने इसकी विशेष दिलचस्पी लेकर मरम्मत करवाई थी। इसका शिखर बिल्कुल मदन मोहन मंदिर से मिलता जुलता है। लेकिन इस मंदिर का व्यासजी के जुगल किशोर से कोई संबंध नहीं है। यह मंदिर भी एकांत में उपेक्षित-सा पड़ा है।
राधा बल्लभ : हित हरिवंश को दहेज में मिले थे
राधा बल्लभ जी की सुंदर प्रतिमा हित हरिवंश महाप्रभु को दहेज में मिली थी। उनका यह विवाह देवबंद (उत्तर प्रदेश) से वंृदावन आते समय चटथावल गांव में आत्मदेव की बेटी से हुआ। हित हरिवंश ने पहले वृंदावन के सेवाकुंज में और बाद में सन् 1584 से 1608 के बीच सुंदर दास खजांची (कुछ इतिहासकार इसका श्रेय रहीम को देते हैं) द्वारा लाल पत्थर से बनवाए गए मंदिर में प्रतिष्ठित किया। औरंगजेबी हमले के समय (सन् 1669) गोस्वामी लोग राधा बल्लभ जी की प्रतिमा को भरतपुर के कामां ले गए। वहां राधा बल्लभ जी करीब सवा सौ वर्ष विराजे और वापस वृंदावन आ गए। राधा बल्लभ जी का नया मंदिर सन् 1814 (संवत् 1871) से सन् 1824 के बीच बना। जहां राधा बल्लभ जी आज भी विराजमान हैं। राधा बल्लभ जी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां आए दिन व्याहुला उत्सव (ठाकुरजी का विवाह उत्सव) होता रहता है और राधा बल्लभ जी दूल्हा बनते रहते हैं। पुराने मंदिर में भी राधा बल्लभ की चित्रपट पूजा होती है। मंदिर की हालत अपेक्षाकृत ठीक है पर बिल्कुल सटे मंदिरों के चलते छिप सा गया है।
राधा रमण : कभी वृंदावन से बाहर गए ही नहीं
राधा रमण जी का विग्रह एक शालिग्राम के रूप में गौड़िया संत गोपाल भट्ट गोस्वामी को गंडक नदी में मिला था। वे उसे वृंदावन ले आए और केशीघाट के पास देव स्वरूप की तरह प्रतिष्ठित किया और सेवा-पूजा करने लगे। एक दिन किसी दर्शनार्थी ने कटाक्ष किया कि चंदन लगाए शालिग्राम जी तो ऐसे लगते हैं मानो कढ़ी में बैगन पड़े हों। यह सुनकर गोपाल भट्ट बहुत दुखी हुई। कहते हैं कि अगली सुबह होते ही शालिग्राम राधा रमण जी के सुंदर विग्रह में बदल गए। राधा रमण जी के प्राकट्य का यह दिन सन् 1542 (संवत् 1599) की वैशाख पूर्णिमा था। यह वृंदावन का एक मात्र विग्रह है जो औरंगजेबी हमले में वंृदावन से बाहर नहीं गया, उन्हें वृंदावन में ही छुपाकर रखा गया। वर्तमान मंदिर लखनऊ के शाह कुंदनलाल और फुंदनलाल ने करवाया था, जहां राधा रमण जी की प्रतिष्ठापना सन् 1827 (संवत् 1884) में की गई। इनकी एक विशेषता है कि जब जन्माष्टमी को देश-दुनिया के सभी कृष्ण मंदिरों में रात के 12 बजे उत्सव, अभिषेक, पूजा-अर्चना व आरती की जाती है, वहीं राधा रमण जी का अभिषेक दिन में 12 बजे ही हो जाता है। परंपरा से इनके सेवक मानते हैं कि ठाकुरजी सुकोमल हैं उन्हें रात्रि में जगाना ठीक नहीं।
बांके बिहारी (कुंज बिहारी) : जुगल जोड़ी के रूप में एकाकार
बांके बिहारी की प्रतिमा कुंज बिहारी और श्रीजी (राधा) के युगल जोड़ी के रूप में स्वामी हरिदास को वृंदावन के निधिवन में सोलहवीं सदी में मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को प्राप्त हुई थी। कहते हैं कि स्वामी के निवेदन पर युगल जोड़ी एकाकार होकर बांके बिहारी हो गई। हरिदास ने उन्हें निधिवन में ही स्थापित किया। कहते हैं कि एक बार अकबर अपने दरबारी संगीतज्ञ तानसेन के साथ यहीं स्वामी हरिदास से मिलने आया था। औरंगजेबी हमले में बांके बिहारी की प्रतिमा को उनके भक्त भरतपुर (राजस्थान) ले गए थे। बाद में वंृंदावन के भरतपुर वाला बगीचा नाम के स्थान पर सन् 1864 (संवत् 1921) में नया मंदिर बनने पर वापस वृंदावन में ही प्रतिष्ठित किया गया। तब से बांके बिहारी (बिहारी जी) वृंदावन में ही दर्शन दे रहे हैं। इनकी विशेषता है यहां साल में केवल एक दिन (जन्माष्टमी के अगले सुबह) मंगला आरती होती है जबकि सभी वैष्णव मंदिरों में नित्य सुबह मंगला आरती की परिपाटी है। इसी तरह साल में केवल एक दिन चरण दर्शन अक्षय तृतीया को होते हैं। ब्रज के अनेेक मंदिरों में सावल में झूला उत्सव 13 दिन होता है लेकिन यहां केवल एक दिन हरियाली तीज को होता है। हालांकि होली उत्सव 40 दिन और गर्मियों के दौरान गर्भगृह से बाहर जगमोहन में बने फूल बंगले में विराजने का क्रम चार महीने चलता हैं। बिहारी जी आज वृंदावन का पर्याय हैं।
गौड़िया सप्त देवालय
वृंदावन में गौड़िय संप्रदाय के सात सबसे पुराने मंदिरों को ‘सप्त देवालय’ कहा जाता है। ये हैं-गोविंद देव, मदन मोहन, गोपीनाथ, राधारमण, राधा दामोदर, राधा श्याम सुंदर और गोकुलानंद मंदिर। इनमें से पहले तीन मंदिर अकबर और जहांगीर के शासनकाल में बने थे और इतिहास व कला के नजरिए से तो महत्वपूर्ण हैं। लेकिन तीनों में मूल विग्रह विराजमान नहीं हैं।
सभी देवालय कृष्ण के हैं पर किसी का भी नाम ‘कृष्ण मंदिर’ नहीं
वृंदावन में कई सौ मंदिर हैं-बांके बिहारी, राधा बल्लभ, राधा रमण, रसिक बिहारी, मोहिनी बिहारी, गोविंद, मदन मोहन, गोपीनाथ, युगल किशोर, राधा माधव, राधा दामोदर, राधा श्यामसुंदर, कुंज बिहारी, गिरधारी, यशोदानंदन, नंद नंदन, कुंजबिहारी, ब्रज बिहारी, मान बिहारी, गोपीजन बल्लभ, राधा मुकुंद, छैल-छकनियां, बनवारी, नवल किशोर, वृंदावन बिहारी, लालजी, गोपालजी, अनन्य बिहारी, विट्ठल विपुल, माखनचोर बिहारी, रणछोड़ बिहारी, नवनीतचोर, प्रिया-प्रियतम, गोकुलानंद, गोकुल चंद्रमा, रमण बिहारी, चंद्र मनोहर, मुरलीधर, मधुसूदन, साक्षी गोपाल मंदिर.. और भी अनेक नाम से मंदिर हैं पर किसी मंदिर का नाम ‘कृष्ण मंदिर’ नहीं है हालांकि सभी मंदिर हैं कृष्ण के ही विविध स्वरूपों के।
वृंदावन में कृष्ण के अलावा ये भी हैं मंदिर
सती के अंग जहां-जहां गिरे थे, उन्हें शक्ति स्थल कहा जाता है। उन 51 शक्ति स्थलों में से वृंदावन भी एक है, यहां सती के केश गिरे थे। यहां केश पीठ में कत्यायनी देवी विराजमान हैं। इसी तरह शंकर यहां गोपी के रूप में विराजमान हैं। वंशीवट के पास गोपीश्वर महादेव का मंदिर है। कहते हैं श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ महाराज के दर्शन के लिए शंकर को गोपी रूप धारण करना पड़ा था। क्षेत्रफल के लिहाज से वृंदावन का सबसे बड़ा मंदिर रंगनाथ मंदिर है। दक्षिण भारतीय शैली में बने इस मंदिर में गोदा रंगमन्नार विराजमान हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर दिल्ली के सिटी चीफ हैं)